नानीजी और पोते की बातचीत — छठी मइया की कहानी
नानी मुस्कुराईं —
अरे बेटा, छठ पूजा तो हमारी सबसे प्राचीन और पवित्र पूजा है। यह सिर्फ कोई त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति और सूर्य देव की आराधना है।”
गुड्डू बोला —
सूर्य देव? लेकिन नानी, हम तो भगवान शिव, राम, कृष्ण की पूजा करते हैं, फिर सूर्य की पूजा क्यों?
नानी बोलीं —
देख बेटा, बिना सूरज के धरती पर कुछ भी नहीं चल सकता। सूरज ही सबको जीवन देता है। खेतों में अन्न उगता है, शरीर को ऊर्जा मिलती है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने सूर्य को देवता माना और उसकी पूजा करने की परंपरा शुरू की।
छठ पूजा की शुरुआत कैसे हुई
नानी आगे बोलीं —
बहुत पुराने समय में, जब वेदों की रचना हुई थी, तब ऋषि-मुनियों ने सूर्य देव की पूजा के ज़रिए ऊर्जा और आत्मबल पाने का तरीका बताया था। वे खुद छठ के व्रत जैसे कठिन तप करते थे।
फिर द्वापर युग में, जब महाभारत का समय था, सूर्य पुत्र कर्ण रोज़ गंगा में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। उनकी शक्ति और तेज उसी पूजा से मिला था। इसलिए कहा जाता है कि सूर्य पूजा से मनुष्य को अपार बल और समृद्धि मिलती है।
इसके बाद त्रेता युग में श्रीराम और माता सीता ने भी अयोध्या लौटने के बाद पहली बार छठ पूजा की थी। यह दीपावली के छह दिन बाद हुआ था। माता सीता ने नदी किनारे जाकर सूर्यदेव और छठी मइया का व्रत रखा था, ताकि समस्त प्रजा की खुशहाली बनी रहे। तब से यह परंपरा हर साल मनाई जाने लगी।
छठी मइया कौन हैं?
गुड्डू ने उत्सुकता से पूछा —
“नानी, छठी मइया कौन होती हैं?”
नानी ने आशीर्वाद का हाथ रखकर कहा —
छठी मइया, सूर्य देव की बहन होती हैं। लोग उन्हें ऊषा देवी भी कहते हैं — जो नई सुबह की देवी हैं। माता छठी मइया बच्चों की रक्षा करती हैं, और जो भी उनकी श्रद्धा से पूजा करता है, उसे संतान सुख और घर में समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं। खासतौर पर महिलाएँ यह व्रत रखती हैं ताकि परिवार में स्वास्थ्य और शांति बनी रहे।
छठ पूजा के चार पवित्र दिन
नानी बोलीं —
ये पूजा चार दिन चलती है, हर दिन की अपनी खास विधि होती है।
पहला दिन – नहाय-खाय:
इस दिन व्रती नदी या तालाब में स्नान करती हैं। घर का वातावरण शुद्ध रखकर केवल सादा और सात्विक भोजन करती हैं — आमतौर पर चने की दाल, कददू और चावल। इसी भोजन से व्रत की शुरुआत होती है।
दूसरा दिन – खरना:
आज दिनभर निर्जला व्रत रखा जाता है। शाम को सूर्यास्त के बाद पूजा के बाद गुड़ से बना खीर, रोटी और फल का प्रसाद ग्रहण किया जाता है। इसे ‘खरना प्रसाद’ कहते हैं।
तीसरा दिन – संध्या अर्घ्य:
शाम के समय सभी व्रती तालाब, नदी या घाट पर इकट्ठे होते हैं। बांस की सुपली में ठेकुआ, फल, नारियल, दीपक और फूल रखकर डूबते सूरज को अर्घ्य दिया जाता है। उस समय घाटों पर लोक गीत गूंजते हैं — पूरा वातावरण भक्तिमय हो जाता है।
चौथा दिन – उषा अर्घ्य:
अगली सुबह, सूरज निकलने से पहले ही सभी व्रती पुनः घाट पर जाकर उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। उसके बाद व्रत का समापन होता है। लोग एक-दूसरे को आशीर्वाद और प्रसाद देते हैं।
व्रत का महत्व और भावार्थ
बेटा,” नानी बोलीं, “छठ पूजा का असली अर्थ है — आत्मसंयम, कृतज्ञता और प्रकृति का आदर। ये व्रत बहुत कठोर होता है — 36 घंटे तक कुछ नहीं खाना-पीना पड़ता। मगर जो भी इसे सच्चे मन से करता है, उसकी मनोकामना पूरी होती है।
यह पूजा हमें बताती है कि ईश्वर सिर्फ मंदिर में नहीं, बल्कि प्रकृति के हर अंश में है — सूरज में, नदी में, हवा में। इसलिए जब हम अर्घ्य देते हैं, तो केवल सूर्य को नहीं, बल्कि उस शक्ति को धन्यवाद देते हैं, जो हमें जीवित रखती है।
गुड्डू नानी की गोद में सिर रखकर बोला —
“नानी, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तो मैं भी आपकी तरह छठ पूजा करूँगा।”
नानी ने मुस्कुराते हुए उसके बालों में हाथ फेरा —
हाँ बेटा, यही तो हमारी संस्कृति की ताकत है — ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहती रहती है, जैसे सूरज की रोशनी जो कभी नहीं बुझती।
रात का आसमान चमक उठा। नानी और गुड्डू दूर से बजते छठ गीतों की आवाज़ सुनते रहे — मन में श्रद्धा और सुकून लिए।